Friday, July 17, 2020

रैकून १९


रैकून १९ :

एक भय सा लगने लगा है आज कल जहाँ हर राही किसी का मौत लिए कहीं मंडरा राहा है |
यहाँ हर अन्जान भी दोषित और मित्र अन्जान लगने लगा है |
क्या है तुम्हारा फितरत जो सबको कफन पहनाने लगे हो ?
फिझ़ा बेरंगीन और कोहरा पराया तुम्हारे शक्सियत के च्त्रिपट मे जहाँ आईना भी कतरा कर एक शीशा सा लगने लगा है |
तुम्हारे कहर से हवा भी गूँगा और हमराहि भी तुम्हारे कत्ल के लहर मे जब कफन का जोड़ा तुमने पहनाया हर वह मोहरे के आशियाने को |
फिर भी ना पता बताने दिया वह कब्र का और ना ही वह शमशान का जहाँ रुख मोड़ा तुमने अचानक हर वह बेखौफ शक्स का |
हर बेघर का अनाज और निहत्ते का दवा क्यों छीना किसी वयापारी ने जब बदन का कपड़ा भी मैल से पहले मिटने वाला हो इस आस मे |
व्यापार कहीं देह का ना हो उजड़ा हुआ चमन मे जहाँ नेता भी ना भीख माँग पाता हो सिर्फ एक सांस का उस अन्धेरी गली , सुनसान सड़क और खामोश वह शहर जहाँ चिड़िया भी पर और ना मारा करती है, लाशे सिर्फ चीख कर यह बयाँ कर रहे हैं कि अन्तकाल अब यही है |
तुम्हारे रूह का काँपना और होठों का थरथराना गवाह हैं बेबसी का जहाँ हाथों मे भाग्य का लकीर भी दिल से जैसे रूठा हो और ज़मीर गुमनाम हो |
भगोड़ों का झुण्ड , बन्द दुकानों का चौकिदार, रण भूमी के सौदागर , धर्म के लुतेरे और नाजायज़ वह न्याय कि मन्दिरें अब मात्र एक काल रात्रि का लहुलुहान माला जिसे गांथा हो जैसे पृथ्वि एक ताण्डव मे |
कब जागोगे , कहाँ खिलोगे, पृक्रित कब बोलोगे हे मनुष्य जाती ?
कब थमेगा हमारा पृथ्वि का बलातकार , कब रोकोगे ये जीवों की हत्याएं , कब सभी जीवों को आदि मानोगे , कब नदी को बहने दोगे , कब वायू को उसके पंख दोगे और तब कहना जल, जंगल और ज़मीन |
करूणा के हम जन्तु पात्र हैं , तत्त्वों के आभारी, ब्र्ह्माण्ड के अटूट अंग, आत्मिक श्रोत के निवासी एवम अघोर पंत के सन्यासी |
चित्त से चिता , सम्भोग से समाधी , जन्म से मृित्यू तक और उपरान्त अपार वह रहस्यम दुनिया इसी खोज का निचोड़ हर निरवाण है जिसका सूत्र का डोर प्राण से प्राणा तक है |


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